"शाजि़या" (लघुकथा)
'अभी तक वही रिंगटोन,इनफैक्ट इफ़ आई ऐम नॉट रॉंग फोन भी वो ही है ना? यू आर इम्पौसिबल किशन।सात साल में बिलकुल नहीं बदले' शाज़िया ही बोले जा रही है,किशन बस हाँ या ना में सर हिला देता है । सात साल पहले भी शाज़िया ही ज़्यादा बोलती थी, ब्राह्मण का ये छोरा तो अक्सर खामोश ही रहता था। बातों का सिलसिला आगे बढने लगता है। सात साल बाद जो मिल रहे हैं दोनों। 'तो मैडम कैसे हैं आपके शौहर?' 'अच्छे हैं,ही इज़ वैरी केयरिंग।' एंड किड्स? 'आई हैव ए सन ।शाहिद नाम है।पाँच साल का हो गया है।' 'तुम बताओ तुम्हारी लाईफ कैसी चल रही है? How is your wife?' 'पता है शालिनी को भी म्यूज़िक का शौक है,और कविताएं भी लिखती है और लप्रेक भी।' 'मतलब तुम्हारी ही तरह हैं? 'ऐक्चुअली तुम्हारी तरह भी है,मुझे बोलने का मौका ही नहीं देती।' 'और तुम्हारी डॉटर? 'Yeah she is also very cute. Infact she is also like you, दो साल की है।' 'क्या नाम है?' थोङी देर खामोश रहा किशन। यह खामोशी मानों सात सालों के मौन की कहानी कह रही थ...