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नए सत्र का शुभ आरम्भ

सादर प्रणाम। एक बहुत लंबे अंतराल के बाद इस ब्लाग पर  फिर से आप सबका स्वागत है। आशा है इस नए सत्र में हम और सार्थक चिंतन कर सकें। ऐसा चिंतन जो आज के समय में चारों ओर व्याप्त ध्रुवीकरण से पूर्णतः मुक्त हो और किसी मत या विचार को अछूत न समझता हो; जो भीड़तंत्र को लोकतंत्र न समझता हो और जिसकी चेतना में हर एक की निजता और स्वतंत्रता के लिए सम्मान हो। तो इस दिशा में आरंभ करते हैं "समझ" को समझने का प्रयास करके। समझ के विषय में सबसे पहले तो यह समझें कि समझ तो केवल समझदार ही सकता है। नासमझ से तो ये हो न पाएगा। और समझदार के लिए इसके सिवा कोई विकल्प ही नहीं है। उसे तो समझना ही होगा। और कोई चारा नहीं है। यहाँ समझदार व्यक्ति सामर्थ्यवान होकर भी विवश है। क्योंकि समझना तो उसी को पड़ेगा। प्रेम में भी और शत्रुता में भी समझ के बिना तो गुजा़रा ही नहीं है। प्रेम में समझ का अभाव कलह को जन्म देता है। और शत्रुता में भी नासमझी घातक ही होती है। तो समझना तो पड़ेगा और समझदार को ही पड़ेगा । नासमझ नहीं समझेगा- गांठ बाँध लीजिए वह नहीं समझेगा। हठी नहीं है, बुरा नहीं है वह, बस नासमझ है। नासमझ से अनपढ़ भी न समझ...