ताजमहल !!!!!!

आज के समाज में  प्रेम करने में बङी बंदिश है।बंदिश तो हमेशा ही थी,पर आज स्टेट स्पांसर्ड बदनामी है।सरकारें रोमियो को बदनाम कर रही हैं,तो बुद्धिजीवी कृष्ण को।तो भला प्रेम कौन करे?
यदि रोमियो को पता होता कि सालों बाद उसके नाम से शोहदों का ज़िक्र आएगा तो कभी मुहब्ब्त करने की गुस्ताखी न करता।यदि  शाहजहाँ को पता होता कि उसके मरने के तीन सौ साल बाद ताजमहल को शिव मंदिर या किसी राजा का महल आदि बताया जाएगा तो प्यार की निशानी के रूप में इतनी बङी इमारत बनाने के फेर में न पङता।वैसे ताजमहल बनाने में आज के आशिक की कोई दिलचस्पी नहीं(और हैसियत भी नहीं)और ऐसा भी नहीं कि जहाँ ताज नहीं बने,वहाँ प्यार नहीं था।ताजमहल मुगल कालीन कलाकारी का एक अद्भुत् नमूना है,पर प्यार की एकमात्र निशानी नहीं।
आज का प्रेमी ताजमहल क्यों नहीं बना रहा?इसके कई कारण हो सकते हैं।एक तो यह कि अब बादशाह रहे नहीं और उनकी बची-कुची बादशाहत भी इंदिरा गांधी ने प्रिवी पर्स बंद कर के खत्म कर दी।धीरे-धीरे समाजवाद मजबूत होता चला गया और बादशाह होना एक महंगा सौदा हो गया ।इससे अच्छा है गरीब होना और सब्सिडी का हकदार बनना।पर क्यों न सरकार ताजमहल बनाने को भी एक सब्सिडी दे दे?कोरी कल्पना नहीं यकीन मानिए फटे हुए लिबास में गरीब दिखते बिलियनरों से भरे  "लोकतांत्रिक" देश में यह संभावना बहुत काल्पनिक भी नहीं।
बहरहाल जो भी हो,एक कारण और जो नजर आता है ताजमहल के न बनने का वो है-आज का प्रेमी अधिक प्रैक्टिकल हो गया है।ताजमहल बनाने के बजाय वो अपनी पत्नी को आईपीएल की टीम खरीद कर दे देता है,जो अधिक फायदे का सौदा भी है।यदि शाहजहाँ के समय में भी निवेष के ऐसे साधन होते तो शायद वह भी प्रेम की नुमाइश के लिए इस महंगे फेर में कभी न पङता।पर उस वक्त निवेष के लिए बस कला,साहित्य और संस्कृति थी।और आज  इन्हें छोङ शेष सभी हैं।आज कला और संस्कृति में निवेष हमें रोमांचित भी नहीं करता।अपने शास्त्रीय संगीत के महान विभूतियों के नाम तो पहली बार सुनने को ही तब मिलते हैं जब उनका देहावसान हो जाए।ये चिंता भी हमें नहीं सताती तो ताजमहल न बनने का गम भी क्यों हो?
पर मेरा मानना तो है कि ये ताजमहल बनने जरूरी हैं- कला और संस्कृति के प्रोत्साहन के लिए,प्रेम करने की संस्कृति को जीवित रखने के लिए,निर्गुण की सगुण रूप में साधना करने के लिए और पर्यटन-रेवेन्यू तो है ही।




फिर भी क्योंकि ताजमहल बनाना तो अधिकांश के बजट में नहीं और सब्सिडी वाली बात महज़ कल्पना है,इसलिए शाब्दिक अर्थ पर न जाया जाए।ताजमहल नहीं तो न सही,कोई सुंदर नज़्म हो,गज़ल हो,सॉनेट हो,कविता हो,कहानी हो,चित्रकारी हो,नक्काशी हो या किसी भी रूप में तराशा जाए पर ये ज़रूरी है- आज के भागमभाग भरे जीवन में चलायमान मन को निर्गुण की साधना को सगुण साधन देने के लिए......बारूदों की आवाज़ों के शोर में भी प्रेम को ज़िंदा रखने के लिए।

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