पद्मावत के बहाने.......🤔🤔
इस बार गणतंत्र दिवस से ज्यादा चौकसी पद्मावत् को लेकर दिख रही है ।राष्ट्रपति भवन में २६ जनवरी की स्वाभाविक हलचल दिखाई देती है तो हलचल देश भर के सिनेमाघरों में भी है।और ये हलचल चित्तौरगढ से ८०० किमी दूर यहाँ देहरादून में भी महसूस की जा सकती है । करनी सेना के इस विरोध का पैन इंडिया इतना मुखर होना या ऐसी संभावना भी मुझे हास्यास्पद लगती है और इसके कुछ कारण हैं ।सबसे पहले तो हमारा इतिहास बोध बहुत ही कमजोर है।इसका एक उदाहरण देखने को मिला पिछले साल 14 फरवरी पर जब न जाने कितने ही लोगों ने सोशल मीडिया पर Valentine's Day का विरोध इस तर्क के साथ किया कि इस दिन भगत सिंह,राजगुरू और सुखदेव को फांसी दी गई थी।पूरे दिन इस तरह की तमाम पोस्ट मैंने फेसबुक पर देखी।यही नहीं इनको लाइक एवम् शेयर करने वाले "राष्ट्वादी चेतना से जागृत" लोगों में अधिकतर पढे लिखे और यहाँ तक कि कुछ तो इतिहास के प्रोफेसर भी थे।अब जब इतिहास बोध की यह स्थिति है देश में तब पद्मावत पर देशभर में हंगामा मुझे न सिर्फ हास्यास्पद लगता है बल्कि सुनियोजित भी।भंसाली को अपनी फिल्म के लिए इससे अच्छी पब्लिसिटी नहीं मिल सकती थी।करनी सेना का तो हमने कभी नाम भी नहीं सुना था।और सुना होता भी कैसे ?? न तो यह भ्रष्टाचार के खिलाफ रामलीला मैदान के आंदोलन में थी न जब कोई निर्भया चीखी थी तब इसने सुना था।पद्मावत के बहाने इसने भी खूब सुर्खियाँ बटोरीं।भूलना नहीं चाहिए कि राजस्थान में इस साल विधानसभा चुनाव भी होने हैं । तो हर मायने में ये फिल्म सभी का कल्याण करने वाली साबित होगी ये निश्चित है।यहाँ इतिहास से छेड़छाङ की गई या नहीं इसमें मेरी कोई दिलचस्पी नहीं ।मेरा सरोकार तो यह सिद्ध करने में है कि भविष्य संभावनाओं से भरा हो या न हो इतिहास अपार संभावनाओं से भरा है और इसमें क्षमता है सभी का कल्याण करने की।दूसरी बात ये कि कोई भी एक पक्ष पूर्णतः उजला नहीं होता कोई भी दूध का धुला नहीं होता । रजवाड़ों की वीर गाथाओं से इतर सच्चाई यह भी है कि उनके दौर में औरतों की बहुत दुर्गति थी। वरना सैकड़ों औरतों को जौहर नहीं करना पङता।देखा जाए तो महिलाओं की स्थिति बहुत अच्छी किसी भी दौर में नहीं रही।
अलाउद्दीन खिलजी गलत था यह बात सही हो सकती है परंतु इतिहास का कोई विशेष कालखंड स्त्रियों के लिए स्वर्णिम रहा हो,ऐसा भी नहीं। द्रौपदी के चीरहरण के पीछे कोई खिलजी नहीं था। उसके अपने ही लोग "क्षत्रिय" ही थे जिन्होंने वस्तु की तरह उसे दांव पर लगा दिया।
कोई भी स्वर्णिम कहा जाने वाला दौर रजवाड़ों के लिए या मुगलों के लिए उत्तम रहा होगा,प्रजा के लिए नहीं। विडंबना यही है कि हमारे पास "एक" इतिहास है और "हम अनेक"।इतिहास हमें पर्याप्त अवसर देता है एक दूसरे के धर्म -जाति आदि पर कीचड़ उछाल स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने का,जबकि असल में तो हमाम में सब नंगे हैं।
पर भारत गजब का देश है।इसका इतिहास महान है ओर इसीलिये हम भविष्य की योजना से अधिक इतिहास की उपलब्धियों में जीते हैं।किसी बच्चे का डाक्टर बनना तय हो गया इसलिए कि माता-पिता डाक्टर हैं।तो इतिहास का पोषण -शोषण सब हमें स्वीकार्य है।
आईंस्टीन-न्यूटन भी यदि भारत में पैदा हुए होते तो हमने उनके चालीसा,मंदिर,स्मारक आदि बना कर छोड़ दिया होता ठेकेदारों के हवाले क्योंकि यह व्यक्ति पूजा का देश है।आस्था तो इतनी अधिक है देश में कि हम रोज़ देखते हैं MBA किए हुए अपनी तमाम मार्केटिंग स्किल्स से एक प्रोडक्ट बेच नहीं पाते......मारे-मारे फिरते सेल्समैन हर दरवाज़े से दुत्कारे जाते हैं और ये जोगी के वेश में भिखारी(या ठग कह लेता हूँ) बड़े सम्मान से नवाजे जाते हैं ।इसीलिए देश में जिसके पास भी यह ठगने की कला है वो या तो मंदिर बना रहा है या फिल्म ।क्योंकि इन दोनों ही कामों में कोई सवाल नहीं खड़े करेगा ।और यदि किए भी तो इससे ये काम और अधिक चमक जाएंगे ।वैसे अमूमन तो कोई सवाल पूछता ही नहीं ।टाईगर सलमान खान केवल चार-पाँच लोगों को साथ लेकर दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकी संगठन के खिलाफ अपने मिशन को अंजाम देने में कामयाब होता है,टाईगर जीत जाता है,लाजिक हार जाता है,पर किसी ने सवाल किया ??हमें दो ही स्थितियां जोड़ती हैं-एक आतंकवाद और दूसरी राष्ट्रवाद।राष्ट्रवाद के नाम पर व्यापारी बन गए हमारे योगगुरू और हमने प्रश्न भी नहीं किया कि एक संन्यासी को नूडल्स का उत्पादन करने की विधि कहाँ से पता चली । हम नहीं प्रश्न करेंगे और Monopoly दे देंगे हर चीज की इन बाबाओं को।और गुणवत्ता के आधार पर कम्पटीशन मार्केट में रहेगा नहीं और फिर आएगी वह भयावह स्थिति जब बिना गेरुआ धारण किए उत्पादन करने वाली कंपनी देशद्रोही कहलाएगी।और वो मोनोपौली फ्री मार्केट इकानामी के लिए ही नहीं लोकतंत्र के लिए भी घातक होगी ।क्योंकि लोकतंत्र लोकतंत्र बनता है न राजनीतिक दलों से न ही पांच साल में एक बार होने वाले चुनावों से,एक सार्थक लोकतंत्र तो बनता है हमारे निर्णय लेने की स्वतंत्रता से।और इसमें बाधा बनने वाला विदेशी भी हो सकता है और स्वदेशी भी।पर हमारे देश का ये दुर्भाग्य है कि जिसको जो करना चाहिए वह वही नहीं करता ।मसलन आज हर अभिनेता गायक बन गया है,
रैप की देन यह है कि खालिस दिल्ली और यूपी के लौंडों की गालियाँ न सिर्फ आम बोलचाल की शब्दावली है बल्कि फिल्मी गीतों के lyrics को भी सुशोभित कर रही हैं।बहुत दूर से नहीं अब तो नजदीक से देख पा रहा हूँ कि गीत-संगीत में बस ढिंचक पूजा और ओमप्रकाश मिश्रा को सुना जाएगा और खेल में हर्षा भोगले जैसे Authentic स्पोर्ट्स ब्राडकास्टर अपनी कुर्सी छोड़ जाएंगे वीरेन्द्र सहवाग और शोएब अख्तर जैसे बङबोलों के लिए जो ट्वीट्स के वाहियातपने और खेल के शालीन प्रस्तुतीकरण की दिव्यता के अंतर को नहीं समझते ।
शिकायत न कीजिएगा कि पद्मावत् से शुरू कर कहाँ पहुँच गया।गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या तो दुरुस्त मौका ही है साल भर की घटनाओं का मूल्यांकन करने का, और वैसे भी शायर,सिंह और सपूत कब लीक पर चले हैं ??
बहुत कम लिखा है,बहुत ज्यादा समझा जाना चाहिए ।
अंत में Happy Republic Day इस प्रार्थना के साथ कि अपनी निर्णय लेने की स्वतंत्रता की रक्षा करें।आपका विवेक सर्वोपरि है,इस पर किसी को हावी न होने दें- न फिल्म बनाने वालों को,न उसका विरोध करने वालों को......न विदेशी को न स्वदेशी को.......और अपने इस दोस्त आशीष को तो बिल्कुल भी नहीं 😊
Happy Republic Day
जय हिंद,जय भारत 🇮🇳
अलाउद्दीन खिलजी गलत था यह बात सही हो सकती है परंतु इतिहास का कोई विशेष कालखंड स्त्रियों के लिए स्वर्णिम रहा हो,ऐसा भी नहीं। द्रौपदी के चीरहरण के पीछे कोई खिलजी नहीं था। उसके अपने ही लोग "क्षत्रिय" ही थे जिन्होंने वस्तु की तरह उसे दांव पर लगा दिया।
कोई भी स्वर्णिम कहा जाने वाला दौर रजवाड़ों के लिए या मुगलों के लिए उत्तम रहा होगा,प्रजा के लिए नहीं। विडंबना यही है कि हमारे पास "एक" इतिहास है और "हम अनेक"।इतिहास हमें पर्याप्त अवसर देता है एक दूसरे के धर्म -जाति आदि पर कीचड़ उछाल स्वयं को श्रेष्ठ सिद्ध करने का,जबकि असल में तो हमाम में सब नंगे हैं।
पर भारत गजब का देश है।इसका इतिहास महान है ओर इसीलिये हम भविष्य की योजना से अधिक इतिहास की उपलब्धियों में जीते हैं।किसी बच्चे का डाक्टर बनना तय हो गया इसलिए कि माता-पिता डाक्टर हैं।तो इतिहास का पोषण -शोषण सब हमें स्वीकार्य है।
आईंस्टीन-न्यूटन भी यदि भारत में पैदा हुए होते तो हमने उनके चालीसा,मंदिर,स्मारक आदि बना कर छोड़ दिया होता ठेकेदारों के हवाले क्योंकि यह व्यक्ति पूजा का देश है।आस्था तो इतनी अधिक है देश में कि हम रोज़ देखते हैं MBA किए हुए अपनी तमाम मार्केटिंग स्किल्स से एक प्रोडक्ट बेच नहीं पाते......मारे-मारे फिरते सेल्समैन हर दरवाज़े से दुत्कारे जाते हैं और ये जोगी के वेश में भिखारी(या ठग कह लेता हूँ) बड़े सम्मान से नवाजे जाते हैं ।इसीलिए देश में जिसके पास भी यह ठगने की कला है वो या तो मंदिर बना रहा है या फिल्म ।क्योंकि इन दोनों ही कामों में कोई सवाल नहीं खड़े करेगा ।और यदि किए भी तो इससे ये काम और अधिक चमक जाएंगे ।वैसे अमूमन तो कोई सवाल पूछता ही नहीं ।टाईगर सलमान खान केवल चार-पाँच लोगों को साथ लेकर दुनिया के सबसे खतरनाक आतंकी संगठन के खिलाफ अपने मिशन को अंजाम देने में कामयाब होता है,टाईगर जीत जाता है,लाजिक हार जाता है,पर किसी ने सवाल किया ??हमें दो ही स्थितियां जोड़ती हैं-एक आतंकवाद और दूसरी राष्ट्रवाद।राष्ट्रवाद के नाम पर व्यापारी बन गए हमारे योगगुरू और हमने प्रश्न भी नहीं किया कि एक संन्यासी को नूडल्स का उत्पादन करने की विधि कहाँ से पता चली । हम नहीं प्रश्न करेंगे और Monopoly दे देंगे हर चीज की इन बाबाओं को।और गुणवत्ता के आधार पर कम्पटीशन मार्केट में रहेगा नहीं और फिर आएगी वह भयावह स्थिति जब बिना गेरुआ धारण किए उत्पादन करने वाली कंपनी देशद्रोही कहलाएगी।और वो मोनोपौली फ्री मार्केट इकानामी के लिए ही नहीं लोकतंत्र के लिए भी घातक होगी ।क्योंकि लोकतंत्र लोकतंत्र बनता है न राजनीतिक दलों से न ही पांच साल में एक बार होने वाले चुनावों से,एक सार्थक लोकतंत्र तो बनता है हमारे निर्णय लेने की स्वतंत्रता से।और इसमें बाधा बनने वाला विदेशी भी हो सकता है और स्वदेशी भी।पर हमारे देश का ये दुर्भाग्य है कि जिसको जो करना चाहिए वह वही नहीं करता ।मसलन आज हर अभिनेता गायक बन गया है,
रैप की देन यह है कि खालिस दिल्ली और यूपी के लौंडों की गालियाँ न सिर्फ आम बोलचाल की शब्दावली है बल्कि फिल्मी गीतों के lyrics को भी सुशोभित कर रही हैं।बहुत दूर से नहीं अब तो नजदीक से देख पा रहा हूँ कि गीत-संगीत में बस ढिंचक पूजा और ओमप्रकाश मिश्रा को सुना जाएगा और खेल में हर्षा भोगले जैसे Authentic स्पोर्ट्स ब्राडकास्टर अपनी कुर्सी छोड़ जाएंगे वीरेन्द्र सहवाग और शोएब अख्तर जैसे बङबोलों के लिए जो ट्वीट्स के वाहियातपने और खेल के शालीन प्रस्तुतीकरण की दिव्यता के अंतर को नहीं समझते ।
शिकायत न कीजिएगा कि पद्मावत् से शुरू कर कहाँ पहुँच गया।गणतंत्र दिवस की पूर्वसंध्या तो दुरुस्त मौका ही है साल भर की घटनाओं का मूल्यांकन करने का, और वैसे भी शायर,सिंह और सपूत कब लीक पर चले हैं ??
बहुत कम लिखा है,बहुत ज्यादा समझा जाना चाहिए ।
अंत में Happy Republic Day इस प्रार्थना के साथ कि अपनी निर्णय लेने की स्वतंत्रता की रक्षा करें।आपका विवेक सर्वोपरि है,इस पर किसी को हावी न होने दें- न फिल्म बनाने वालों को,न उसका विरोध करने वालों को......न विदेशी को न स्वदेशी को.......और अपने इस दोस्त आशीष को तो बिल्कुल भी नहीं 😊
Happy Republic Day
जय हिंद,जय भारत 🇮🇳
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