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Showing posts from October, 2016

सुई या तलवार ?????

रहिमन देखि बड़ेन को, लघु न दीजिए डारि जहां काम आवै सुई, कहा करै तलवारि। रहीम का यह दोहा तो हमने सुना ही है,गौर करें बस सुई और तलवार पर। प्रत्येक वस्तु का अपना मूल्य है।जो काम सुईं से हो सकता है,वह तलवार से संभव नहीं।पर अफसोस कि आज हम एक ऐसे दौर में हैं जब सुईं की कला सीखने का नहीं,तलवार की ताकत तोलने का प्रचलन है।जब से सोशल नेटवर्किंग साइट्स आई हैं,हमने देखा हैकि अब चीज़ें लोकप्रिय नहीं होतीं,प्रसिद्ध नहीं होती,बस "वाइरल" होती हैं।और ये वाइरल ही बङा घातक है,विष के प्याले के समान है।फेसबुक-व्हॉट्स एप आदि के माध्यम से जो एक सबसे बङा विषकारक वाइरल फैल रहा है इन दिनों-वह है राष्ट्रवाद।राष्ट्रवाद हो तो अच्छा है,पर यह है फर्जी राश्ट्रवाद (इस शब्द के जनक इस दौर में डॉ कुमार विश्वास हैं जहॉँ तक मेरी जानकारी है)। बङा व्यापक और भयावह है यह फर्जी राष्ट्रवाद।और इस को खाद-पानी से सींचता है सोशल मीडिया का अभिशाप।आए दिन हमारा(मेरा तो नहीं) खून उबाल देने वाले पोस्ट और मैसेजेज़ देखने को मिलते हैं।जैसे एक तस्वीर में तिरंगे को जलाता एक लङका दिख रहा है,और उस पर "माता-बहनों के सम्मान सूचक...

"अनजानी राह"

एक पतली सी पगडंडी  पर पथिक चलता जा रहा है।पथिक क्या चलता है,बस राह ही चलती है।वह तो पथिक है,उसका काम ही है चलना।राह भी सीधी है,तो उसका चलना तो सहज ही है ।चलना भी आगे की ही ओर है,पीछे मुङना मुनासिब नहीं। इसलिए पथिक चल रहा है आगे,कोई व्याकुलता नहीं,कोई विह्वलता नहीं,बस गतिशीलता ही दिखाई पङती है। पर यह क्या? अचानक एक राह से दो राहें निकल पङीं। अब पथिक कुछ उलझन में है- किस ओर चले? दोनों ही राहें एक ही सी दिखती हैं- एक जैसा सन्नाटा है दोनों में,और ऐसा ही एक सन्नाटा पथिक के भीतर भी है- शून्यता का सन्नाटा। नहीं सूझता कहाँ जाए,कुछ पल सोचने लगा ही था कि उलझन और बढ गई-------कि अचानक तीसरी राह भी दिखने लगी।राह जिस पर चलकर पहुँचा था वह यहाँ तक,राह जिस पर उसकी सारी ऊर्जा का निचोङ था,राह जिसको वह अब छोङ आया था। अब माथे की नस दुखने लगी,इक मायूसी सी छाने लगी और गतिशीलता पथिक की अब समाप्त हो चुकी है ।थम चुके हैं पथिक के कदम और अंतत: एक  "पथिक" जीवन समाप्त हो गया- क्योंकि संभवत: एक अनजानी राह पर चलने का भय था उसके मन में,या संदेहों के,अनिश्चितताओं के,शंकाओं के काले बादलों में किरण का अभाव ...