Posts

Pakistan: Where Faith Excuses Failure

Hosting an ICC event after 29 years, only to be the first team knocked out. No century on their own highways, played more than 300 dots in two games, yet there are praises coming from his mates, for the skipper's "Namaz". Whether on the field or in politics, wrap failure in faith and you don't just escape accountability, you become the "messiah". That's Pakistan for you! #Sorry_State

भारत vs India ?

वन नेशन वन इलेक्शन एक बहुत अच्छा प्रहार होगा ऐसे लोगों पर जो फुल टाइम केवल राजनीति करते हैं। ये लोग और कुछ नहीं करते, केवल राजनीति करते हैं। ऐसे लोग बेहद घातक होते हैं एक स्वस्थ समाज में क्यों कि अपनी "फुल टाइम वाली राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं" के पोषण के लिए समाज में विष घोलते रहने के सिवा इनके पास कोई विकल्प नहीं होता। फुल टाइम राजनीति करनी है तो विष तो घोलना ही होगा, नफरत तो पैदा करनी ही होगी। समाज को बांटना तो होगा ही। जब धर्म, संप्रदाय, जाति, आदि की सब दीवारें cliche लगने लगें, तब राजनीति गढ़ती है कुछ नया, मसलन भारत और इंडिया के बीच भी दीवार ये खड़ी कर देती है, क्या अंतर है भारत और इंडिया में, इसके मायने कई हैं, इसके तर्क भी राजनीति कई खोज लेगी, कुतर्क उससे भी ज़्यादा, पर इन सब की ज़रूरत नहीं, बस इतना ही काफी है कि राजनीति ने एक दीवार खड़ी कर दी है, राजनीति इन्हीं दीवारों पर मज़बूत खड़ी रहती है। वो ही दीवारें जो समाज को बांट रही होती हैं, ज़मीन तैयार कर रही होती हैं राजनीति के लिए। फुल टाइम राजनीति में हर दिन बिना कुछ अच्छा किए भी आपको हर दिन प्रासंगिक बने रहने की चुनौती है...

"भीड़" से इतर ...

Image
मद्रास हाईकोर्ट ने कोरोना के बढ़ते मामलों के लिए बहुत कड़े शब्दों में चुनाव आयोग की आलोचना की है। आलोचना भी हलका शब्द है। हत्यारा करार दिया है चुनाव आयोग के अधिकारियों को। वैसे बात सही भी है। जब Accountability फिक्स करनी ही हो (और करनी ही चाहिए) तो सबसे पहले बात चुनावी रैलियों की ही होनी चाहिए। क्योंकि "दो गज की दूरी" के नियम का सबसे अधिक बेशर्मी के साथ उल्लंघन तो यहीं हो रहा था। बल्कि अब उल्लंघन हलका शब्द मालूम पड़ता है। धज्जियाँ उड़ाई जा रही थीं। तो मद्रास हाईकोर्ट की बात तो एकदम ठीक है पर ये टिप्पणी अधूरी है। क्योंकि पहली लहर और दूसरी लहर के बीच के समय को अब याद कीजिए तो पाएंगे कि चुनावी रैलियों से इतर भी देश में कई जगह भीड़ थी। कुंभ में दूरी के नियम की अनदेखी हुई और किसान आंदोलन में भी। और इन सबसे पहले सुशांत को इंसाफ दिलाने के नाम पर जो मीडिया ट्रायल इस देश ने देखा वह सबसे त्रासदीपूर्ण था। कोरोना के प्रसार के बीच भी मीडिया जिस लापरवाही के साथ भीड़ पैदा कर रहा था, वह इस TRP वाली रिपोर्टिंग का सबसे घटिया चेहरा था। याद कीजिए रिया चक्रवर्ती का पीछा करती मीडिया की गाड़ियों का...

Bertrand Russell's Ten Commandments of Critical Thinking

As a part of our series of foundational posts on critical thinking, today I am sharing with you the very popular ten commandments of critical thinking given by Bertrand Russell in an article published in a 1951 edition of the New York Times Magazine :- 1) Do not feel absolutely certain of anything. 2) Do not think it worthwhile to proceed by concealing evidence, for the evidence is sure to come to light. 3) Never try to discourage thinking, for you are sure to succeed. 4) When you meet with opposition, even if it should be from your husband or your children, endeavour to overcome it by argument and not by authority, for a victory dependent upon authority is unreal and illusory. 5) Have no respect for the authority of others, for there are always contrary authorities to be found. 6) Do not use power to suppress opinions you think pernicious, for if you do the opinions will suppress you. 7) Do not fear to be eccentric in opinion, for every opinion now accepted was once eccentric. 8) Find...

नए सत्र का शुभ आरम्भ

सादर प्रणाम। एक बहुत लंबे अंतराल के बाद इस ब्लाग पर  फिर से आप सबका स्वागत है। आशा है इस नए सत्र में हम और सार्थक चिंतन कर सकें। ऐसा चिंतन जो आज के समय में चारों ओर व्याप्त ध्रुवीकरण से पूर्णतः मुक्त हो और किसी मत या विचार को अछूत न समझता हो; जो भीड़तंत्र को लोकतंत्र न समझता हो और जिसकी चेतना में हर एक की निजता और स्वतंत्रता के लिए सम्मान हो। तो इस दिशा में आरंभ करते हैं "समझ" को समझने का प्रयास करके। समझ के विषय में सबसे पहले तो यह समझें कि समझ तो केवल समझदार ही सकता है। नासमझ से तो ये हो न पाएगा। और समझदार के लिए इसके सिवा कोई विकल्प ही नहीं है। उसे तो समझना ही होगा। और कोई चारा नहीं है। यहाँ समझदार व्यक्ति सामर्थ्यवान होकर भी विवश है। क्योंकि समझना तो उसी को पड़ेगा। प्रेम में भी और शत्रुता में भी समझ के बिना तो गुजा़रा ही नहीं है। प्रेम में समझ का अभाव कलह को जन्म देता है। और शत्रुता में भी नासमझी घातक ही होती है। तो समझना तो पड़ेगा और समझदार को ही पड़ेगा । नासमझ नहीं समझेगा- गांठ बाँध लीजिए वह नहीं समझेगा। हठी नहीं है, बुरा नहीं है वह, बस नासमझ है। नासमझ से अनपढ़ भी न समझ...

पद्मावत के बहाने.......🤔🤔

इस बार गणतंत्र दिवस से ज्यादा चौकसी पद्मावत् को लेकर दिख रही है ।राष्ट्रपति भवन में २६ जनवरी की स्वाभाविक हलचल दिखाई देती है तो हलचल देश भर के सिनेमाघरों में भी है।और ये हलचल चित्तौरगढ से ८०० किमी दूर यहाँ देहरादून में भी महसूस की जा सकती है । करनी सेना के इस विरोध का पैन इंडिया इतना मुखर होना या ऐसी संभावना भी मुझे हास्यास्पद लगती है और इसके कुछ कारण हैं ।सबसे पहले तो हमारा इतिहास बोध बहुत ही कमजोर है।इसका एक उदाहरण देखने को मिला पिछले साल 14 फरवरी पर जब न जाने कितने ही लोगों ने सोशल मीडिया पर Valentine's Day का विरोध इस तर्क के साथ किया कि इस दिन भगत सिंह,राजगुरू और सुखदेव को फांसी दी गई  थी।पूरे दिन इस तरह की तमाम पोस्ट मैंने फेसबुक पर देखी।यही नहीं इनको लाइक एवम् शेयर करने वाले "राष्ट्वादी चेतना से जागृत" लोगों में अधिकतर पढे लिखे और यहाँ तक कि कुछ तो इतिहास के प्रोफेसर भी थे।अब जब इतिहास बोध की यह स्थिति है देश में तब पद्मावत पर  देशभर में हंगामा मुझे न सिर्फ हास्यास्पद लगता है बल्कि सुनियोजित भी।भंसाली को अपनी फिल्म के लिए इससे अच्छी पब्लिसिटी नहीं मिल सकती थी।करनी...

SARAHAH के बहाने ......(व्यंग्य)

कल "Sarahah" को  uninstall कर ही दिया।झूठ काहे बोलें सात दिन में सिर्फ दो मैसेज आए। खुद को सांत्वना देने को सोचता हूँ शायद मेरे दोस्त इतने पारदर्शी हैं कि उन्हें मुझ से कुछ कहने को ऐसे माध्यमों की कोई आवश्यकता नहीं महसूस होती हो। पर अपने अनुभव से इतर देखूँ तो साराहा खूब चल रहा है।अपवादों को छोड़  दें तो लोग इस पर आने वाली हर अच्छी बुरी प्रतिक्रिया से संतुष्ट दिख रहे हैं।मनवांछित के लिए स्वीकार्यता और अनवांछित के लिए असहिष्णुता जो अन्य जगहों पर दिखती है वह यहां  नहीं  दिखाई  देती। इसकी लोकप्रियता  का सबसे बडा कारण है इसमें पहचानों की गोपनीयता।ये मनोविज्ञान की बात है कि हमें  वही वस्तुएं  अधिक लालायित करती हैं जो दिखाई नहीं देती।सुना है अमेरिका में एक स्टोर ने एक बार ऐसी हेयरपिन बेचनी शुरू की जो दिखती नहीं  थी।देखते ही देखते  ये खूब चलन में आ गईं।खूब  बिकने  लगीं।लोगों को यह अपील कर गईं।हर कोई  इसे खरीदने  लगा,सेल खूब  बढ गई ।बाद में पता चला कि असल में ऐसी कोई हेयरपिन थी ही नहीं डिबिया तो खाली थी। यह सही है कि ...